इन प्यारे बन्धनों में
अपने कर्मो से
फ़र्ज़ के हाथो में
हर सीमा को जाना है
मन आहत होता है
बंध के आई हूँ ..
खुशियाँ ही तो फ़ैलाने आई हूँ
भूल के अपना सबकुछ
प्यार ही बाँटती आई हूँ ..
अपने वचनों से
मिटटी की इस देह से
समर्पित होती आई हूँ ..
किस्मत की लकीरों में
आशाओं निराशाओं में
खुद को सौंपती आई हूँ।।
अस्तित्व अपना कब स्वतंत्र माना है ..
मुस्कान कोई जब खोता है ..
खुशियों की अभिलाषा में
हर कोशिश करती आई हु ..
khoob
ReplyDeletemagar maayusi kyon